कहने को हम बिहारी होने पर गर्व कर ले लेकिन इस बात पर शर्मिंदा कौन होगा कि सबसे बड़े मजदूर भी हम ही हैं ।
मजदूर ही तो है हम बिहारी लिखते हुए जितना कष्ट हो रहा है शायद इतना पढ़ते हुए आपको भी हो।
लेकिन यही सच्चाई है जिससे भागा नही जा सकता भाग भी कैसे सकते है जब नसीब में छेनी हथौड़ी से ठोक ठाक कर यही लिख दिया गया है कि .....
हम घर छोड़ बाहर निकले शौक नही हमे अपने घर को छोड़ कर जाने को लेकिन मजबूरी है उन्हीं घरवालों के पेट जो पालने है शायद यही एक मजबूरी रहती है यहाँ से जाने वालों के लिए ।
फिर क्या होता है अनजान शहर में नौकरी की तलाश शुरू होती है यहाँ से जो डिग्री हासिल किया होता है उसकी वैल्यू तो इतनी है कि उस पर कोई चपरासी भी रख ले तो बहुत बड़ा ऐहसान मानिये उनका ।
अब तलाश आगे बढ़ती है जब दिमाग से उस डिग्री का भूत उतर जाता है कि यह सिर्फ एक कागज का वो टुकड़ा है जिसपर दस रुपये का भुजा लो खाओ और डस्टबिन में डाल दो ।
जब किसी कारखाने में बंधुआ मजदूर की तरह काम मिलता है जहां सैलरी फिक्स नही होता मिलता है तो एक काम जहाँ जितना काम करोगे उतना ही मिलेगा।
ऐसे ही वो 36 लोग थे जो दिल्ली में झुलस कर तड़प तड़प कर मर गए जिसके बारे में तो इस बात से भी इनकार किया जाता रहा है कि वो उनके यहां काम करते थे
अब काहे का घमंड की हम बिहारी है जो है घमंड की हम बिहारी है तो खुद कुछ करना शुरू करों यहाँ गाँव की जमीन खोद कर खाओ या बोझा ढो कर पेट भरो नही तो मर जाओ लेकिन यही मरों कम से कम जन्मभूमि तो मिलेगा मरने के लिए ही तो जाते हो बाहर आज मरोगे या कल कौन पूछेगा कुछ कट कर हड्डियां हटेगी कुछ जल कर नहीं मिलेगी अरे लावारिश लाश पड़ी रहेगी कुत्ते भी दुर्गध से सूंघने नही आएंगे तो क्यों ना अपने यहां मरे ।
जीना की लालसा हैं अगर तो चल कुछ कर लेकिन यही कर यही कर यही कर ।
अपना बिहार
लेकिन यही सच्चाई है जिससे भागा नही जा सकता भाग भी कैसे सकते है जब नसीब में छेनी हथौड़ी से ठोक ठाक कर यही लिख दिया गया है कि .....
हम घर छोड़ बाहर निकले शौक नही हमे अपने घर को छोड़ कर जाने को लेकिन मजबूरी है उन्हीं घरवालों के पेट जो पालने है शायद यही एक मजबूरी रहती है यहाँ से जाने वालों के लिए ।
फिर क्या होता है अनजान शहर में नौकरी की तलाश शुरू होती है यहाँ से जो डिग्री हासिल किया होता है उसकी वैल्यू तो इतनी है कि उस पर कोई चपरासी भी रख ले तो बहुत बड़ा ऐहसान मानिये उनका ।
अब तलाश आगे बढ़ती है जब दिमाग से उस डिग्री का भूत उतर जाता है कि यह सिर्फ एक कागज का वो टुकड़ा है जिसपर दस रुपये का भुजा लो खाओ और डस्टबिन में डाल दो ।
जब किसी कारखाने में बंधुआ मजदूर की तरह काम मिलता है जहां सैलरी फिक्स नही होता मिलता है तो एक काम जहाँ जितना काम करोगे उतना ही मिलेगा।
ऐसे ही वो 36 लोग थे जो दिल्ली में झुलस कर तड़प तड़प कर मर गए जिसके बारे में तो इस बात से भी इनकार किया जाता रहा है कि वो उनके यहां काम करते थे
अब काहे का घमंड की हम बिहारी है जो है घमंड की हम बिहारी है तो खुद कुछ करना शुरू करों यहाँ गाँव की जमीन खोद कर खाओ या बोझा ढो कर पेट भरो नही तो मर जाओ लेकिन यही मरों कम से कम जन्मभूमि तो मिलेगा मरने के लिए ही तो जाते हो बाहर आज मरोगे या कल कौन पूछेगा कुछ कट कर हड्डियां हटेगी कुछ जल कर नहीं मिलेगी अरे लावारिश लाश पड़ी रहेगी कुत्ते भी दुर्गध से सूंघने नही आएंगे तो क्यों ना अपने यहां मरे ।
जीना की लालसा हैं अगर तो चल कुछ कर लेकिन यही कर यही कर यही कर ।
अपना बिहार